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Home Magazine

कन्यादान का महत्त्व

Tirtha by Tirtha
October 15, 2021
in Magazine, Non Fiction
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The Indian Rover (Issue: October, 2021)

कन्यादान का महत्त्व - बासुदेव मिश्रा

दानतत्त्व अति गहन है ।

द्विहेतु षडधिष्ठानं षडङ्गं च द्विपाकयुक् ।

चतुष्प्रकारं त्रिविधं त्रिनाशं दानमुच्यते ॥

दान के – 2 हेतु, 6 अधिष्ठान, 6 अङ्ग, 2 पाक, 4 प्रकार, त्रिविध तथा त्रिनाश माना गया है।

द्विहेतु – श्रद्धा और शक्ति है ।

षडधिष्ठानं – धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, भय और हर्ष है ।

षडङ्गं – दाता, प्रतिग्रहिता, शुद्धि, धर्मयुक् देय, देश और काल है ।

द्विपाक – इहकालिक, परकालिक है ।

चतुष्प्रकारं – ध्रुव, त्रिक, काम्य, नैमित्तिक है । इनमें नैमित्तिक कालापेक्ष, क्रियापेक्ष, गुणापेक्ष भेद से त्रिविध है।   

 त्रिविधं – उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ है ।

 त्रिनाशं – आसुर, राक्षस, पैशाच है ।

कन्यादान श्रद्धा और शक्ति से, धर्माधिष्ठान में (बिना किसी परिग्रह के – जैसे मुसलमानों का मेहेर, आदि), योग्य प्रतिग्रहिता को (कुल, शील, सनाथता, विद्या, वृत्ति, वपु, वयः के विचार कर), इहकालिक-परकालिक लोकनिर्वाह के लिए, नैमित्तिक प्रकार से (उपयुक्त काल में, उपयुक्त अग्निसाक्षीत्वादि गुणविशिष्ट क्रिया द्वारा), उत्तम तथा नाशरहित दान है । अतः यह महादान है ।

दान में किसी प्रिय वस्तु अथवा जीव को अपने से दूर कर (दो॒ अव॒खण्ड॑ने) अन्य किसी से सम्बन्ध किया जाता है । विवाह में कन्या को पिता के गोत्र से खण्डन कर पति के गोत्र से सम्बन्ध किया जाता है । इसका कारण DNA है ।

मनुष्य के DNA में 23 जोडा chromosome होते हैँ । इसमें से एक जोडा (XY) केवल पिता से पुत्र को तथा अन्य एक जोडा (mDNA) केवल माता से सन्तानों को (केवल कन्याको नहीँ) जाता है । अन्य 21 जोडा का वेद में 84 विभाग किया जाता है, जिसे सहः कहा जाता है । आधुनिक विज्ञान से यह प्रमाणित है कि जैविक परिवर्तन का प्रभाव (effect of genetic mutation) सात प्रजन्म पर्यन्त रहता है । वैदिकविज्ञान में इसे अधिक विस्तार से आलोचना किया गया है ।

मनुष्य के शुक्र में 28 सहः नामक तत्त्व रहते हैं (सहसो जातवेदसम् – ऋग्वेदः 3-11-4)। अपने पूर्वपुरुषों से प्राप्त 56 सहः को मिलाकर 84 सहः हो जाते हैं, जिसे 84 लक्ष योनि कहते हैं (लक्षयतीति – लक्षँ दर्शनाङ्क॒नयोः॑, लक्षँ॒ आ॒लोच॑ने च)। इन 56 में से 21 अपने पिता के, 15 पितामह के, 10 प्रपितामह के, 6 वृद्धप्रपितामह के, 3 अतिवृद्धप्रपितामह तथा 1 वृद्धातिवृद्धप्रपितामह के है ।  उसीप्रकार वर्तमान बीजधारी पुरुष के शरीर में जो सहः तत्त्व है, उसमें से 28 स्वशरीर में रहेंगे।

पुत्र में 21, पौत्र में 15, प्रपौत्र में 10, उसके पुत्र में 6, उसके पुत्र में 3, तथा उसके पुत्र में 1 रहेगा । इसप्रकार वर्तमान पुरुष से गणना करने पर पूर्व के 6 पुरुष तथा आगे के 6 पुरुष पर्यन्त सापिण्ड्य माना जाता है । भिन्न गोत्र में विवाह करने से जो जैविक विवर्त होते हैं, वह क्रमिक क्षय होते हुये सप्तपुरुषों में पूर्ण क्षय हो जाता है । अतः सात पुरुष पर्यन्त सगोत्र विवाह निषिद्ध है । इनमें से केवल पुरुष के शुक्र में ही 28 सहः नामक तत्त्व रहते हैं । अतः पिता का गोत्र प्रधान होता है । पिता वीजी माता क्षेत्र है । अतः कन्या का गोत्र परिवर्तन होता है – वर का नहीँ ।

मनुष्यवाह्यं चतुरश्रयानं अध्यास्य कन्या परिवारशोभि   ।

विवेश मञ्चान्तरराजमार्गं पतिंवरा क्लृप्तविवाहवेषा  ॥ रघुवंशम् ६.१० ॥

विवाह के समय परिवार के शोभिता कन्या मनुष्यवाह्यं चतुरश्रयानं – पुरुषों द्वारा वहन किया गया चौकोर यान (पालकी) पर आती थी । हमारे संस्कार में स्त्री-पुरुषमय दम्पति को ही मान्यता प्राप्त है जिसमें स्त्री के रक्षा का भार पुरुष पर होता है । अनेक दम्पति मिलकर परिवार बनता है । जो परि (चारों दिशाओं से) अपने में वरण कर लेता है (वृञ् वर॑णे) तथा आवरण कर रक्षा करता है (वृञ् आ॒वर॑णे), उसे परिवार कहते हैँ (परव्रियतेऽनेन) ।

सन्तानोत्पत्ति विवाह का मूल उद्देश्य है । इन्द्रियसुख उसमें अधिक फल है । धर्ममें दोनों समान भागी होते हैँ । जहाँ स्त्री-पुरुष एक दुसरे को वरण करते हैँ, वहाँ वर, कन्यापिता को वचन देता है कि वह कन्या का दश अक्षम्य दोष को भी क्षमा कर उसे जीवनसङ्गिनी बनायेगा ।

अपनेपन के चार कारण होते हैं (चतुर्द्धाप्रीतिः) । प्रथम अभ्यास से (माँ का हाथ का खाना सबसे स्वादिष्ट) । द्वितीय अभिमान से (मेरा पुत्र सबसे प्यारा) । तृतीय प्रत्यभिज्ञा से (अचानक कुछ देखने पर स्मृति की सहायता से उत्पन्न होनेवाला सुखस्मृतिरूप ज्ञान – जैसे बहुत दिन से बिछडे हुए मित्र का दर्शन अथवा पटु ज्ञान) । चतुर्थ इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से (जो हमारे इन्द्रियों का तोषण करें – यथा क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः) ।

विवाह का मूल अभिमान – अपनापन है । अपनापन के कारण अभ्यास से हमारे से भिन्न आचार व्यवहार हमें खराप नहीँ लगता । कुछ व्यवहार हमारे अतीत के कुछ सुखमय स्मृति को पुनर्जागरित कर देते हैँ । विषयसुख काम के उपभोग से मिलजाता है । अतः विवाह में समय के साथ प्रीति बढता है ।

जो विवाह को केवल कामवासना चरितार्थ करने का सामाजिक साधन मानते हैँ, अथवा जो धन के बदले शरीर देने को विवाह कहते हैँ, वह विवाह का अर्थ नहीँ जानते । जो पैसे के लिए अपना सबकुछ समर्पित कर सकते हैँ, वह दान तत्त्व नहीँ समझ सकते । वेश्याएँ पैसा लेना जानते हैँ , उनका दान नहीँ होता ।

Tags: The Indian Rover
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