भारतीय गणित - वासुदेव मिश्र

भारतीय गणित के विषय में बहुत भ्रान्त धारणायें है। इसके अनुसार किसी भी संख्या को शून्य से योग, वियोग अथवा भाग करने पर वह संख्या अपरिवर्तित रहता हैं। परन्तु शून्य से गुणा करने पर वह संख्या शून्य हो जाता है। शून्य से भाग करने पर स्थल विशेष में वह संख्या “खहर” कहलाता है। परन्तु किसी “खहर” संख्या को शून्य से गुणा करने पर वह संख्या पूर्ववत् हो जाता है। यह नियम आधुनिक नियम से भिन्न किन्तु विज्ञानसम्मत है।
हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि “संख्या सर्वस्य भेदिका” (आन्तरालिकावयव संस्थानगतभेद संख्या का जनक है)। सब मूर्त-अमूर्त द्रव्यों के विभाजन के लिये संख्या का व्यवहार होता है (द्रव्येषु भिन्नव्यवहारः पृथक्त्वारिक्तभेदवशात् संख्यावशाच्च)। प्रथम भेद (परत्व-अपरत्व) को एक कहते हैं कारण यह सर्वसामान्य तथा अन्वय-व्यतिरेक-विहीन है। “एक इता सङ्ख्या। इता अनुगता सर्वत्र या सङ्ख्या सा एक। एकत्वं केवलान्वयीति। अत्यन्ताभाव अप्रतियोगित्वं च केवलान्वयीत्वम्”। उसीसे एकत्व का भावना जात हो कर स्मृति में रहता है। जब अधिक एक का ग्रहण होता है, तो उसे “वहु” कहते हैं। उसीमें द्वेत्वादि (एक और एक – द्वि, द्वि और एक त्रि आदि) अपेक्षाबुद्धि से भावना जात होते हैं।
वहु से दो, तीन, चार, आठ, नौ, दश, शत आदि का विकल्पन किया जाता है। उसके लिये नियम है कि – “द्वौ द्रुततरा सङ्ख्या। त्रयस्तीर्णतमा सङ्ख्या। चत्वारः चलिततमा सङ्ख्या। … नव न वननीया नावाप्ता वा। दश दस्ता दृष्टार्था वा। दस्ता उपक्षीणा दसु उपक्षये। या पुनर्नबर्धते सा सङ्ख्या दश। विंशतिर्द्विदशतः। … शतं दशदशतः। आदि”।
जो संख्या अलग से दिखाइ दे, वह एक है। यदि उसी प्रकार का एक और है, तो उसका भी क्षणमात्र में वोध होता है। द्रुततर वोध के लिये उसे द्वी कहते हैं। यदि उसी प्रकार का एक और है, तो उसका भी संसर्पण रूप से वोध होता है। इसी प्लवन-तरण के लिये उस संख्या को त्री कहते हैं (तॄ प्लवनतर॒णयोः॑)। यहाँ तक वच्चे और पशुओं को भी संख्याज्ञान हो जाता है। परन्तु इसके आगे सवका संख्याज्ञान नहीं होता है। अतः परवर्ती संख्या चलितसमा होने से उसे चत्वार कहते हैं। समस्त पदार्थ पञ्चभूतों के सम्बन्ध से वने हैं (पाङ्क्तो वै यज्ञः)। यही पृक्तम् (पृच्यते स्म, सम्बन्धते स्म – पृचीँ सम्प॒र्के स॒म्पर्च॑ने च) गुण के कारण परवर्ती संख्या को पञ्च कहते है। …. नव संख्या का विशेष गाणितिक गुण सर्वविदित है। किसी भी संख्या को नौ से गुण करने से उस संख्या का योग नौ होता है। कभी भी अधिक नहीं होता। अतः उस संख्या को नव (नव न वननीया – न संभजनीया) कहते हैं।
वैदिक पद्धति में अङ्कानां वामतो गतिः – अङ्कों का दक्षिण से वाम दिशा में लेखने का निर्द्देश है। प्रथम एकक, उसके वाम में दशक, उसके वाम में शतक आदि लिखा जाता है। नौ के पश्चात् संख्या का उपक्षीण हो कर पुनरावर्तन होता है। इस उपक्षीण भाव के कारण नौ के परवर्ती संख्या को दश कहते हैं (दस्ता उपक्षीणा दसु उपक्षये)। अन्य संख्यायें इसीका गुणक हैं (विंशतिर्द्विदशतः। … शतं दशदशतः। आदि)। उस कारण से भी इस संख्या को दश कहते हैं (या पुनर्नबर्धते सा सङ्ख्या दश)। आदि।
उपक्षीण (अतिशयेन ऊनः) हो कर उस स्थान से जो अङ्क गतिशील हो कर अन्यत्र चले जाये उसे शून्य कहते हैं (शूने हितम् – शुनँ गतौ॑ – zero is a number that is not present at here-now – संसर्गाभावः – वर्तमानकाले अभावः. It does not imply absolute non-existence.)। हम केवल वर्तमानका प्रत्यक्ष कर सकते हैं। प्रत्येकवस्तु वर्तमानमें रहते हैं। अतः उन्हे सत् कहते हैं। विना संख्याके कोइ वस्तु वर्तमानमें रह नहीं सकता (न विना सङ्ख्ययाकश्चित् सत्त्वभूतोऽर्थ उच्यते। अतः सर्वस्य निर्द्देशे सङ्ख्यास्यादविवक्षिता)। प्रत्यक्ष न होनेकेकारण जिसका क्रिया-गुणआदि निर्द्देशित नहीं किया जा सकता, उस संसर्गाभावको असत् कहते हैं। शून्य प्रत्यक्ष न होनेके कारण असत् है। उससे किसी सत् संख्याका निर्द्देश नहीँ किया जा सकता। इसीलिये प्रथमे शून्य लिखकर उसके वामभाग में मूल संख्यावाची एक लिखकर दश का निर्द्देश कियाजाता है।
रेखा-वृत्त भेदसे संख्याका अभिवृद्धि द्विविध है (रेखावृत्तञ्च)। एक का द्वि आदि आयाम सम्बन्धी विस्तार (linear accumulation) अथवा अभिवृद्धिको योग, तथा क्षय को वियोग कहते हैं। यह एक ही प्रकार के वस्तु में सम्भब है। आप तीन आम और दो अमरुद का योग नहीं कर सकते, परन्तु फल के हिसाव से उनका योग करसकते हैं। परन्तु आयामके साथसाथ आरोह एवं समुर्च्छय सम्बन्धी विस्तार (nonlinear accumulation) अथवा अभिवृद्धिको गुणन, तथा क्षय को विभाग कहते हैं। एक पङ्क्तिमें खडे हुये गौओं का गणना योग है। तीन पङ्क्तिमें खडे हुये गौओं का गणना योग अथवा गुणन से किया जा सकता है। गुणन में एक पङ्क्तिमें खडे हुये गौओं के संख्या तथा प्रत्येक पङ्क्तिमें खडे गौओंके संख्या का व्यवहार होता है। यहाँ पङ्क्ति और गौ साधारण है। शून्य असत् होने के कारण, उसका योग एवं वियोग भी प्रत्यक्ष नहीं होता। अतः मूल संख्या अपरिवर्त्तित रहता है। परन्तु गुणनमें उसका एक अंशमात्र सत् एवं आंशिक असत् होने से वह संख्या पूर्णतः प्रत्यक्ष नहीं होता। अतः वह असत् (शून्य) ही होता है।
जब शून्यसे किसी वस्तुको विभाजित करेगें तो परिणाम “अनंत” होगा – विदेशियों का यह घारणा ठीक नहीं है। उनका कहना है कि पच्चीस को छह से भाग दिया जाय तो हम उससे चार वार छह निकाल सकते हैं और एक अवशेष रहता है। तो उत्तर हुआ चार, अवशेष एक। उसीप्रकार यदि हम किसी संख्या से शून्य निकालते हैं, तो अनन्तवार निकाल सकते हैं। तो उत्तर अनन्त होगा। परन्तु यह गणितके सिद्धान्त के विरुद्ध है। भाग में हम तब तक भाज्य से भाजकको निकालते हैं, जबतक शेष भाजक से कम न हो जाय। तब हम भागफल कहसकते हैं। पच्चीस से दोवार छह निकालने से तेरह शेष रहता है। हम यह नहीं कहते हैं कि उत्तर दो, अवशेष तेरह। उसीप्रकार यदि हम किसी संख्या से शून्य निकालते हैं, जितनेवार निकालें शेष वहीसंख्या रहती है, जो भाजक (शून्य) से अधिक है। अतः हम भागफल का घोषणा नहीं करसकते।
वैदिकपद्धति में शून्य से भाग करने पर भागफल अज्ञात हो जाता है, कारण भागफल संख्या है, और संख्या अवच्छिन्न होता है – उसका परिमाण पूर्णरूप से ज्ञात होता है। उदाहरण के लिये प्रतिदिन हमारा आयु क्षीण हो जाता है। वह आयु कहाँ जाता है। अतीतमें, जो वर्तमान नहीं है। अतीत आयु हमें ज्ञात है, परन्तु भविष्य आयु हमें अज्ञात है। एक ज्ञात है, एक अज्ञात है। अतः हमारा कितना आयु वचा है, हम कह नहीं सकते। उसीप्रकार शून्य वर्तमान में नहीं रहने के कारण उसका मूल्य हमारे लिये अज्ञात है। एक स्थान पर आम नहीं है तो हम वहाँ आमका संख्या शून्य कहते हैं। परन्तु आम अन्यस्थान पर हो सकते हैं। अन्यत्र कितने आम है, हम नहीं जानते। इसीकारण शून्यसे भाग देनेपर वहसंख्या अज्ञात होकर “खहर” कहलाता है। उसका इयता हम नहीं जानते, जैसे अनन्त का इयता हम नहीं जानते। परन्तु यदि खहर को हम शून्य से गुणा करते है, तो जो अज्ञातभाग चला गया था, उसका पुनरावर्तन होता है। तब वह संख्या पूर्ववत् हो जाता है।