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Home Magazine

न तस्य प्रतिमाऽअस्ति

Tirtha by Tirtha
July 16, 2021
in Magazine, Non Fiction
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The Indian Rover ( Issue: July, 2021)

न तस्य प्रतिमाऽअस्ति - वासुदेव मिश्रा

जाकिर नायक जैसे पाखण्डी तथा कुछ आर्यसमाजी इस वेदमन्त्र का कदर्थ करते हुए, इसे मूर्तिपूजा का विरोधी प्रचार कर रहे हैँ । वह लोग इस मन्त्र का आंशिक वर्णन कर रहे हैँ तथा तस्य का अर्थ ब्रह्म कह रहे हैँ । जाकिर नायक इसे आल्लाह मान कर बुतपरस्ति का विरुद्ध कह रहा है । उन्हे न शास्त्र का ज्ञान है न मूर्तितत्त्व का ।
 
पूरा मन्त्र इस प्रकार है – 
न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः।
हिरण्यगर्भऽइत्येष । यजुर्वेदः काण्वसंहिता । 35:25 ।
अथवा –
न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः।
हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मां हिग्वंसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येषः। 
यजुर्वेदः माध्वन्दिनसंहिता । 32:3 ।
 
अव इसका अर्थ देखते हैँ । जिसकी प्रतिमा नहीँ है । किसकी प्रतिमा नहीँ है ? यस्य नाम महद्यशः – जिसका नाम महत् यशः है । वह कौन है ? हिरण्यगर्भऽइत्येष । वह महत् यशः – जो महान् यश वाला हिरण्यगर्भ नामसे जाना जाता है, उसकी प्रतिमा नहीँ है । किसी के प्राणमात्राको उसका छन्द कहते हैँ । उस हिरण्यगर्भका छन्द क्या है ? प्रतिमा छन्दः । तद् द्यौः । सूर्यो देवता – आपस्तम्ब श्रौतसूत्र (16-28-3) । उसका प्रतिमा छन्द है । वह द्युलोक में है। प्रतिमा क्या है ? प्रतिमीयते इति – अनुकृति । किसी रूपवान् व्यक्ति का रूपभेद तथा भाव का सादृश्ययुक्त अन्य कृति को प्रतिमा कहते हैँ । प्रतिमा का अलङ्कार उसके सत्त्वगुण, आयुध उसके रजोगुण, तथा वाहन उसका तमोगुण को दर्शाता है । द्युलोक का अनुकृति नहीँ हो सकता । कारण हम उसे देख नहीँ सकते ।
उसके आलोक से सब कुछ भासित होते हैँ । परन्तु वह स्वयं कृष्णवर्ण है –
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च । 
हिरण्य़येन सविता रथेन ऽऽ देवो याति भुवनानि पश्यन ।। 
शुक्लयजुर्वेदः ३३।४३, ऋग्वेदः 1-35-2 ।। 
आकृष्णेन आकर्षणात्मना ईषत्कृष्णेन च । हमारे लिए सबको आकर्षित करनेवाला तथा सबको देखनेवाला (सर्वज्ञतया) सूर्य कृष्णवर्ण है – अपश्य है । अतः उसका प्रतिमा नहीँ होता । सूर्यमण्डल तथा सूर्यरथ होता है ।

इसी को आगे बढाते हुए श्रुति कहती है – यस्मान्न जात इत्येषः । यह यजुर्वेदः माध्वन्दिनसंहिता के 8-36 मन्त्र है ।

यस्मान्न जातः परो अन्यो अस्ति य आविवेश भुवनानि विश्वा । 
प्रजापतिः प्रजया सग्वंरराणस्त्रिणी ज्योतींग्वंषि सचते स षोडशी ।। 
उससे सृष्ट नहीँ हुआ – ऐसा कुछ भी नहीँ है (अर्थात् सब कुछ जिससे सृष्ट हुआ है – सृष्ट ब्रह्म) । जो समस्त विश्वभुवन में प्रविष्ट है – सब के भीतर है (प्रविष्टब्रह्म – तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्‌ । तदनुप्रविश्य। सच्च त्यच्चाभवत् । निरुक्तं चानिरुक्तं च । निलयनं चानिलयनं च । विज्ञानं चाविज्ञानं च । सत्यं चानृतं च सत्यमभवत्‌।यदिदं किं च – तैत्तिरीयोपनिषत् 2-6) । वह षोडशी प्रजापति इसप्रकार प्रजाओँ में क्रीडा करता हुआ (सम्यक् रममाण) तीन ज्योतियोँ से समवाय सम्बन्ध में रहता है (षचँ॑ समवा॒ये) । 
यहाँ तीन ज्योतियोँ का वर्णन है । परन्तु केवल दो (सृष्ट ब्रह्म – क्षर, तथा प्रविष्टब्रह्म – अक्षर) के विषय में कहा गया है । तो तृतीय (प्रविविक्त ब्रह्म – अव्यय) कौन है ? इन तीनों के पाँच पाँच कलाएँ है । तीनों के पन्द्रह कलाएँ हुइ । तो फिर षोडश कला (षोडशी – परात्पर) क्या है ? उनके विषय में क्यों कुछ नहीँ कहा गया ? कारण वह (प्रविविक्त ब्रह्म तथा परात्पर) शास्त्रानधिकृत है । शास्त्र के बाहर की वस्तु है । शास्त्र भी उसके निकट पहुँच नहीँ सकता । इसी केलिए कहा गया है – यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह – तैत्तिरीयोपनिषत् 2-4, न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते – श्र्वेताश्र्वेतरउपनिषद् 6-8, आदि । जिसे प्रकाश करने मेँ (जिसके विषय में कहने के लिए) वाणी असमर्थ है (अकथनीय) – कहा नहीँ जा सकता, जो मन का विषय नहीँ है (जिसके विषय में कल्पना भी नहीँ की जा सकती – अकल्पनीय), उसका रूप कहाँ से आयेगा ? रूप नहीँ है तो प्रतिमा कैसे बनेगा ? 
 
32 अध्याय के द्वितीय मंत्र हैं – 
सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि ।
नैनंमूर्ध्वं न तिर्य्यञ्च न मध्ये परिजग्रभत् ।। 
उसी पुरुष से समग्र काल (लोकानामन्तकृत् कालः) और ज्योति दीप्यमान है । उसे न कोई ऊपर से, न तीर्यक दिशा से, न मध्य से जान सकता है (उसके विस्तार मापा नहीं जा सकता – अप्रमेय) । यह भी उसीको समर्थन करता है ।
प्राचीन सूक्ति है –
अचिन्यस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः ।
उपासकानां सिद्ध्यर्थं ब्रह्मणो रूपकल्पना ।
ब्रह्म अचिन्त्य है । अप्रमेय है । निर्गुण है । तो उसमें गुण का आधान क्योँ और कैसे किया जाता है ? उत्तर – वह अगम्य तत्त्व को सरल रूपसे साधारण उपासकों के वोधगम्य कराने के लिए ब्रह्म का रूपकल्पना किया गया है । रूपस्य भावो मुख्यः – रूप का भाव ही मुख्य है । प्रतीतात् प्रतीकः – उपमा-उपमेय क्रम से प्रतीत भाव से प्रतीक बनता है । रूपादङ्गानि सञ्जायन्ते – प्रतीक के रूप से गुण-लक्षण को आश्रय कर उनके अङ्गविन्यास किया जाता है । उदाहरण के लिए पुरी के जगन्नाथजी के मूर्त्ती को देखिए । 
जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत् का नाथ नहीँ है – जगत् न अथ है । कारण नाथ शब्द का अर्थ इच्छितवस्तु को दे कर सन्तुष्ट करने वाला, दोष करने पर शासन कर दण्ड देने वाला, याचक को ऐश्वर्य प्रदान करने वाला, आशीष देने वाला होता है (नाथृँ॒ याच्ञोपतापैश्वर्या॒शीष्षु॑) । यह सब कर्ता के लक्षण है तथा भेद वाची है (किसका नाथ ? लोकनाथ अथवा जगन्नाथ में लोक अथवा जगत् का नाथ से भिन्न स्थिति होती है, जैसै प्रजानाथ, रघुनाथ आदि में प्रजा तथा रघु का उनके नाथ से भिन्न स्थिति होती है) । तो फिर जगन्नाथ कौन है ? अथ शब्द आनन्तर्य वाची है । वह जगत् के अनन्तर है । जगत् में स्थित किन्तु जगत् से परे अचिन्त्य, अप्रमेय, निर्गुण ब्रह्म है । 
 
तभी तो वह आसीनो दूरं व्रजति – वैठा वैठा वह दूर चला जाता है । अतः उनके पद नहीँ है । वह सबका नियमन करते हुए स्वयं कुछ करता नहीँ है – साक्षी है । अतः उनके हाथ नहीँ है । सब उनमेँ समाये हुए हैँ । अतः वह वाहेँ फैलाए हुए हैँ । वह सर्वद्रष्टा है । अतः उनके आँखेँ विशाल है । वह सर्वभक्षी काल का भी काल है । अतः उनका मुख विशाल है । वह सबका उपादानकारण होते हुए भी, सब से असङ्ग है । अतः उसके विशाल नाक मेँ छिद्र नहीँ है (पृथ्वी का गुण गन्ध) । चतुष्टयं वा इदं सर्वम् – संसार में सबका चार विभाग है (जैसे मनुष्य में आत्मा-मन-इन्द्रिय-शरीर) । अतः वह चतुर्द्धामूर्त्ती है । जगन्नाथ-बलभद्र-सुभद्रा के आँखेँ जलचर-स्थलचर-आकाशचर प्राणियों जैसे हैँ । उनके वर्ण कृष्ण-श्वेत-पीत हे, जो मनुष्यों के शरीर के वर्ण होते हैँ । वह सब बन्धन से मुक्त है । अतः उनके माला में ग्रन्थि नहीँ रहता । आदि ।
 
प्रश्न होगा अन्य देवताओँ का मूर्ती तो ऐसे नहीँ है । उत्तर के लिए उस मूर्त्ती के तत्त्व को समझना पडेगा । यहाँ एक उदाहरण देखिए । क्या इलेक्ट्रिसिटि है ? हाँ । क्या आपने इलेक्ट्रिसिटि को देखा है ? नहीँ । परन्तु इलेक्ट्रिसिटि है, कारण आप बल्ब, पङ्खे, फ्रिज, हिटर, एसि आदि में उसके प्रभावको देखा है । परन्तु क्या बल्ब, पङ्खे, फ्रिज, हिटर, एसि आदि देखने मेँ एक जैसे हैँ ? नहीँ । यदि इन सबको एक जैसे बना दिया जाए, तो क्या वे आपके व्यवहार के उपयुक्त होँगे ? नहीँ । आलोक केलिए हमें बल्ब चाहिए । हवा केलिए पङ्खे चाहिए । आदि । क्या बिना इनके इलेक्ट्रिसिटि आप के काम आयेगा ? नहीँ । बस हमारे मूर्तियाँ उसी प्रकार के हैँ । बिना इन देवी-देवताओँ के निर्गुणब्रह्म हमारे काम का नहीँ । परन्तु इन देवी-देवताओँ ब्रह्मके बिना कुछ नहीँ है । 
 
ब्रह्म तो इलेक्ट्रिसिटि जैसे एकमेव अद्वितीयम् है । जैसे विना बल्ब, पङ्खे, फ्रिज, हिटर, एसि आदि के इलेक्ट्रिसिटि हमारे किसी काम का नहीँ है, साक्षी निर्गुण ब्रह्म भी हमारे किसी काम का नहीँ । हमारे सारे देवता उस एकमेव अद्वितीयम् ब्रह्म के महिमान एवैषामेते (बृहदारण्यकोपनिषत् 3-9-2) – उसकी महिमा है, जिससे वह फलप्रद होता है, जैसे इलेक्ट्रिसिटि बल्ब, पङ्खे, फ्रिज, हिटर, एसि आदि के माध्यम से फलप्रद होता है । बुद्धि केलिए गणेश चाहिए । विद्या के लिए सरस्वती चाहिए । धन के लिए लक्षी चाहिए । आदि । हमारे प्रत्येक देवता के मूर्त्ती के पीछे गूढ रहस्य है, जो उनके ध्यान तथा गायत्री में निहित है ।
                                    हरि ॐ ।
नमः प्रकृत्यै सर्वायै कैवल्यायै नमोनमः । 
त्रिगुण्येकस्वरूपायै तूरीयायै नमेनमः ।।
महत्तत्त्वजननै च द्वन्दकर्त्रै नमोनमः । 
ब्रह्ममातनमस्तुभ्यं साहङ्कार पितामही ।।
पृथग्गुणायै शुद्धायै नमोमातर्नमोनमः । 
विद्यायै शुद्धसत्त्वायै लक्ष्मै सत्त्वरजोमयी ।।
नमोमातरविद्यायै ततः शुद्धै नमोनमः । 
काल्यै सत्त्वतमोभूतै नमो मातर्नमोनमः ।।
स्त्रीयै शुद्ध रजोमूर्त्त्यै नमो त्रैलोक्यवासिनी । 
नमो रजस्तममूर्त्त्यै दुर्गायै च नमोनमः ।।
                      ॐ स्वस्तिः स्वस्तिः स्वस्तिः ।
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