क्या पाणिनि ने 'मित्र को सम्भोगार्थ स्व पत्नि देने की कुप्रथा' का समर्थन किया है? - शिव प्रताप सिंह
एक मराठी इतिहासकार विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे ने मराठी भाषा में अत्यंत आपत्तिजनक पुस्तक “भारतीय विवाह संस्थेचा इतिहास” लिखी थी। जिसमें हिंदू समाज पर अनेकों अश्लील और अनीतिकारक आक्षेप लगाये गये हैं। आजकल इस पुस्तक का वामपंथियों द्वारा हिंदी अनुवाद प्रचारित किया जा रहा है।
इसी पुस्तक में राजवाड़े ने आरोप लगाया है – “भारतीय ऐसा कभी नहीं मानते थे कि अपने मित्र को स्व स्त्री सम्भोगार्थ देने में कोई नीति भंग होता है। पाणिनि ने इसका समर्थन “द्विगोर्लुगनपत्ये – 4.1.88 सूत्र में ‘द्वायोर्मित्रयोरपत्यं द्वैमित्रि’ अर्थात् दो मित्रों के अपत्य या संतति को द्वैमित्रि कह कर किया है।”
राजवाड़े जी ने यह लिखने से पहले ये भी नहीं विचार किया कि यह नीति या स्मृति ग्रंथ नहीं है अपितु व्याकरण ग्रंथ हैं। जिसमें प्रचलित सभी शब्दों के आधार पर व्याकरण प्रक्रियाओं और शब्द व्युत्पत्ति का निरुपण मात्र ही होता है। इसलिए व्याकरण विधायक ग्रंथ से किसी भी प्रकार का अश्लील आक्षेप लगाना मूर्खता मात्र ही है। तथापि हम इस सूत्र की जांच करते हैं तो इसमें स्त्री को अपने मित्र के लिए भेंट करने जैसी कोई बात नहीं है।
इसके लिए हम इस सूत्र का अर्थ जानते हैं – “द्विगोर्लुगनपत्ये – 4.1.88”
इस सूत्र में प्राग्दीव्यत:, ङ्याप्प्रातिपदिकात्, प्रत्यय: की अनुवृत्ति पूर्व सूत्रों से आयेगी। अतैव इस सूत्र का अर्थ होगा –
“प्राग्दीव्यतीयेष्वर्थेषु विहितो द्विगोर्य: सम्बंधी निमित्तं तद्धितप्रत्ययस्य लुग् भवति। अपत्यप्रत्ययं वर्जयित्वा।“ अर्थात् प्राग्दीव्यतीय अर्थों में विहित अपत्य अर्थ से भिन्न द्विगु सम्बंधित जो तद्धित प्रत्यय है, उसका लुक् होता है।“
इस सूत्र द्वारा द्विवेदी, पंचकपाल, त्रिवेदी जैसे शब्दों की सिद्धि होती है। इस सूत्र के अर्थ से स्पष्ट है कि इसमें wife swapping जैसी कोई बात नहीं है बल्कि ये तो द्विगु सम्बंधित शब्दों के प्रत्ययों पर लुक् आदेश का विधान कर रहा है। यहां अनपत्यम् अर्थात् न अपत्यम् तस्मिन् अनपत्यम् (नञ् तत्पुरुष) कह कर अपत्य अर्थात् वंश सम्बंधित शब्दों का निषेध किया है अतः संतति या पुत्र सम्बंधित कोई शब्द का इस सूत्र से सम्बंध ही नहीं है।
हम इस सूत्र के भाष्यकारों पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि इस सूत्र के किसी भी भाष्य जैसे – महाभाष्य, काशिका, न्यास, तत्वबोधिनी में द्विमित्रे का उदाहरण नहीं है। काशिका और न्यास में द्विमित्रे के स्थान पर द्वैदेवदत्ति: का उदाहरण समानार्थी है। द्विमित्रे का उदाहरण सिद्धांत कौमुदी में द्वयोर्मित्रयोरपत्यं द्वैमित्रिः से दिया है और बाल मनोरमा ने “द्वैमित्रिरिति” से दिया है।
यहां द्वयोर्मित्रयोरपत्यं द्वैमित्रिः का अर्थ ये तो है कि दो मित्रों की संतति द्वैमित्रि: है किंतु इसका ये अर्थ कदापि नहीं है कि दो मित्रों ने मिलकर एक मित्र की पत्नि से सम्भोग किया और उससे उत्पन्न संतान को दोनों मित्रों ने अपनी – अपनी संतान मान लिया हो। अपितु यहां तात्पर्य है कि कोई मित्र अपने अन्य मित्र को अपनी संतान दे देवे और अन्य मित्र उस संतान को अपना पुत्र मान ले अथवा गोद ले लेवे, तो ऐसी संतति को द्वैमित्रि अर्थात् दोनों मित्रों की संतति कहते हैं, जैसे श्री कृष्ण वसुदेव और नंद दोनों के पुत्र माने जाते हैं क्योंकि वसुदेव ने उन्हें जन्म दिया और नंद ने उन्हें गोद लिया। अत: पत्नि से मित्र को सम्भोग कराने जैसी कोई बात यहां है ही नहीं।
यहां हम व्याकरणाचार्यों के मत से भी इसी अर्थ की पुष्टि करते हैं –
मूल सूत्र में अनपत्यम् कहा है अर्थात् संतति सम्बंधित दिगु वाले शब्दों में तद्धित् प्रत्ययों में लुक् आदेश नहीं होगा। इसी को कौमुदी व काशिकाकार ने समझाते हुए लिखा है –
सिद्धांत कौमुदी – अनपत्ये किम्? द्वयोर्मित्रयोरपत्यं द्वैमित्रिः॥
अर्थात् अनपत्यम् कहने का क्या फल है? तो उदाहरण दिया है कि द्वैमित्रि जैसे शब्दों में लुक् का निषेध इस सूत्र द्वारा किया जाता है।
काशिका – अनपत्ये इति किम्? द्वैदेवदत्तिः। त्रैदेवदत्तिः।
अर्थात् अनपत्ये कहने का क्या प्रयोजन है? तो उदाहरण देकर कहा है कि द्वैदेवदत्ति (अर्थात् दो मित्रों (देवदत्तों) की संतति वाले शब्दों) में प्रस्तुत सूत्र लुक् प्रत्यय का निषेध करते हैं।
यहां द्वैदेवदत्ति के अर्थ का स्पष्टीकरण काशिका की टीका पदमञ्जरी में किया है – “द्वौ देवदत्तसंज्ञकौ स एवमुच्यते, एकस्य वा दत्तपुत्रोऽन्यस्य साक्षात्पुत्र:” अर्थात् द्वैदेवदत्ति उनकी संज्ञा है जब किसी के दो पिता हो, उनमें वो एक की तो जैविक संतान है और दूसरे की दत्त अर्थात् मानी हुई व गोद ली हुई संतान है। इसी तरह समानार्थी होने से द्वैमित्रि का भी यही अर्थ होगा कि जब कोई बालक दो मित्रों की संतान या पुत्र हो तो वो द्वैमित्रि कहा जाता है, जिनमें से एक मित्र तो उसका जैविक (साक्षात्) पिता होता है और दूसरा उसे पुत्र मानने वाला व गोद लेने वाला होता है।
अत: राजवाडे का आरोप निराधार ही सिद्ध होता है। ऐसे अनेकों आक्षेप वामपंथी लेखकों द्वारा हिंदू समाज पर किये जाते हैं जिनका समुचित उत्तर देना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा यह हिंदू युवाओं के मस्तिष्क में हिंदू ग्रंथों के प्रति विष घोल देगें।
सहायक ग्रंथ सूचि –
1.ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, अष्टाध्यायी प्रथावृत्ति भाग – 2, रामलाल कपूर ट्रस्ट
2.विश्वनाथ काशिनाथ राजवाड़े, भारतीय विवाह संस्थेचा इतिहास, लोक वांग्मया गृह प्रकाशन मुंबई
3.अष्टाध्यायी एप (गूगल प्ले स्टोर)
- डॉ. जयशंकर लाल त्रिपाठी, काशिका (न्यास – पदमञ्जरी भावबोधिनी सहिता), तारा प्रिंटिग वर्क्स